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रविवार, 4 मार्च 2018

एक ग़ज़ल : ये कैसी रस्म-ए-उलफ़त है----

एक ग़ज़ल : ये कैसी रस्म-ए-उलफ़त है----

ये कैसी रस्म-ए-उलफ़त है ,न आँखें नम ,न रुसवाई
ज़माने को खटकता क्यों  है दो दिल की  पज़ीराई

तुम्हारे हाथ में पत्थर ,  जुनून-ए-दिल इधर भी है
न तुम जीते ,न दिल न हारा,नही उलफ़त ही रुक पाई

न भूला है ,न भूलेगा कभी यह आस्तान-ए-यार 
मेरी शिद्दत ,मेरे सजदों की अन्दाज़-ए-जबींसाई

तुम्हारे सितम की मुझ पर अभी तो इन्तिहा बाक़ी
कभी देखा नहीं होगा , मेरी जैसी शिकेबाई

तुम्हारी तरबियत में ही कमी कुछ रह गई होगी
वगरना कौन करता है मुहब्ब्त की यूँ  रुसवाई

कभी जब ’मैं’ नहीं रहता ,तो बातें करती रहती हैं
उधर से कुछ तेरी यादें ,इधर से मेरी तनहाई

हमारी जाँ ब-लब है ,तुम अगर आ जाते इस जानिब
यक़ीनन देखते हम भी कि क्या होती मसीहाई

मैं मह्व-ए-यार में डूबा रहा ख़ुद से जुदा ’आनन’
मुझे होती ख़बर क्या कब ख़िज़ाँ आई ,बहार आई 

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 
पजीराई =चाहत ,स्वीकृति ,मक़्बूलियत
आस्तान-ए-यार = प्रेमिका के देहरी का चौखट/पत्थर
अन्दाज़-ए-जबींसाई = माथा रगड़ने का अन्दाज़./तरीक़ा
शिकेबाई      =धैर्य/धीरज/सहिष्णुता
तरबियत =पालन पोषण 
जाँ-ब-लब =मरणासन्न स्थिति
मह्व-ए-यार = यार के ध्यान में मग्न /मुब्तिला

3 टिप्‍पणियां:

  1. हमारी जाँ ब-लब है ,तुम अगर आ जाते इस जानिब
    यक़ीनन देखते हम भी कि क्या होती मसीहाई....
    एक से एक, असरदार शे'रों से सजी गज़ल !
    बहुत खूब !

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (05-03-2018) को ) "बैंगन होते खास" (चर्चा अंक-2900) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

    जवाब देंहटाएं