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शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

Laxmirangam: मेरा जिन्न

Laxmirangam: मेरा जिन्न: मेरा जिन्न                     कल सुबह अचानक ही मेरी मौत हो गई.                मैं लाश लिए काँधे किसी दर निकल पड़ा,      ...

एक व्यंग्य : रावण का पुतला---

  एक लघु कथा  : ----रावण का पुतला

 ---- आज रावण वध है । 40 फुट का पुतला जलाया जायेगा । विगत वर्ष 30 फुट का जलाया गया था } इस साल बढ़ गया रावण का कद। पिछ्ले साल से से इस साल बलात्कार अत्याचार ,अपहरण ,हत्या की घटनायें बढ़ गई तो ’रावण’ का  कद भी बढ गया।रामलीला की  तैयारियाँ पूरी हो चुकी हैं  मैदान में भीड़ इकठ्ठी हो रही है । बाल बच्चे,  महिलायें , वॄद्ध,  नौजवान धीरे धीरे आ रहे हैं ।आज रावण वध देखना है  । मंच सजाया रहा है । इस साल मंच भी बड़ा बनाया जा रहा है ।  इस साल वी0आई0पी0 -लोग ज़्यादा आयेंगे। सरकार में कई पार्टियों का योगदान है- सभी पार्टियों के नेताओं को जगह देना  है मंच पर । पिछली साल ’अमुक’ पार्टी के नेता जी बिफ़र गये थे मंच पर ।-धमकी देकर गए थे---’हिन्दुत्व ’ पर ,आप का ही खाली ’कापी -राईट’ नही है  है ? --हमारा भी है। इसी लिए तो ’काँग्रेस’  छोड़ कर इधर आये  वरना उधर क्या बुरे थे?  इस बार कोई दूसरा नेता न बिदक जाये -इस लिए मंच बड़ा रखना ज़रूरी है सबको जगह देना है --सबका साथ -सबका विकास। ’राम-सीता-लक्षमण-हनुमान ’ की जगह कम पड़ गई  -तो क्या हुआ ?-} उन्हें  जगह की क्या ज़रूरत ।वो तो सबके दिल में है  परन्तु वी0आई0पी0 लोगो को मंच पर जगह कम न पड़ जाये।
नेता आयेंगे।अधिकारी गण आयेंगे। रावण वध देखने। मंच पर वो भी आयेंगे जिन पर ’बलात्कार’ का आरोप है ---वो भी आयेंगे जिनपर  ’घोटाला’ का आरोप है ---वो भी आयेंगे जो ’बाहुबली’ है जिन्होने आम जनता के ’ खून’ का बूँद बूँद अपने ’घट’ में भरा है---रावण ने भी भरा था। वो भी आयेंगे जो कई ’लड़कियों’ का अपहरण कर चुके है -वो भी आयेंगे जिन पर ’रिश्वत’ का आरोप है ।’भारत तेरे टुकड़े होंगे’ वाले भी आयेंगे ।कहते है_ आरोप से क्या होता है ? सिद्ध भी तो होना चाहिये। सब भगवान को माला पहनायेंगे--बगल में कोने में सिमटे ’भगवान’ जी सब सुन रहे हैं -उन्हे ’रावण वध’ करना है --इधर वाले का नहीं --सामनेवाले  का --पुतले का।
उधर रावण का पुतला खड़ा किया जा रहा है -भारी है । अपने पापों से भारी है ।सेठ जी ने बड़ा चन्दा  देख कर खड़ा करवाया  है।  कमेटी वालों ने येन केन प्रकारेण ’पुतला’ खड़ा कर के सीना चौड़ा किया और चैन की साँस ली । पुतला खड़ा हो गया मैदान में उपस्थित सभी लोगों ने तालिया बजाई । सब की नज़र में आ गया रावण का पुतला --उसका पाप --उसका ’अहंकार’ --उसका ’लोभ--उसका रूप ’ । यही तो देखने आए हैं इस मेला में। ऐसे पापियों का नाश अवश्य होना चाहिए} वध में अभी विलम्ब है। राम- लक्ष्मण जी अपना तीर धनुष लेकर पहुँच चुके हैं --मगर रावण को अभी नहीं मार सकते ।भगवान को इन्तेज़ार करना पड़ेगा। मुख्य अतिथि महोदय अभी नहीं पहुँचे हैं।
मैदान में लोग आपस में बात चीत कर रहे हैं --समय  काटना है। क्या करें तब तक।
कान्वेन्ट के एक बच्चे ने रावण के पुतले को देख कर अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर किया-"मम्मा हू इस दैट अंकल"?
"बेटा ! ही इस ’रावना’ --लाइक योर डैडू । रामा विल किल ’रावना’-थोड़ी देर में
बच्चे को -’डैडू’ वाली बात तो  समझ में नहीं आई ,पर ’रामा’ किल ’रावना’ वाली समझ में आ गई
उधर "हरहुआ’ अपने काका को बता रहा था  --’काका ! ई अब की बार का पुतला न बड़ा जानदार बनाया है } महँगा होगा?
काका ने अपना अर्थ शास्त्र का ज्ञान बताया--- हाँ  ! अरे ! बड़े आदमी का पुतला भी मँहगा होता है रे । हम गरीबन का थोड़े ही है कि एक मुठ्टी घास ले कर फूंक  दिया ---
रमनथवा की बीबी ने कान में अपने मरद से कुछ कहा -"सुनते हो जी ! हमें तो आजकल महेन्दरा की नीयत ठीक नहीं लगती---बोली-ठोली करता रहता है  --हमें तो उसकी नज़र में खोट नज़र आ रहा है---"
’अच्छा ! स्साले को ठीक करना पड़ेगा"-रामनाथ ने बोला--"बहुत चर्बी चढ़ गई है उस को . बड़ा ’रावण’ बने फिर रहा है ।छोड़ , तू रावण देख---"
उधर शर्मा जी ने माथुर साहब से कहा -" या पुतला इस वेरी नाइस --बट  इट लैक ए ’टाई’
माथुर साहब ने हामी भरी ---यस सर ! हम लोग ’टाई ’ में कितना ’नाइस" लगता है--बेटर दैन ’रावना’
 भीड़ बेचैन हो रही थी । मुख्य अतिथि महोदय अभी तक पहुँचे नही ।मोबाईल से खबर ले रहे हैं --अरे  कितनी  भीड़ पहुँची  है मैदान में  अभी ?---नेता जी के चेला-चापड़ खबर दे रहे हैं  कि बस सर आधा घंटा और ।पहुँचिए रहें हैं लोग । नेता जी तो भीड़ से ही जीते हैं  ---रावण को क्या मारना ...?जल्दी क्या है ?--- वो तो हर साल ही मरता है । चुनाव तो इस साल है।   राम जी उधर अपना डायलाग’ याद कर रहे हैं
--अब रावण भी बेचैन होने लगा। एक तो मरना और उस पर खड़ा होने की सज़ा ।पता नहीं ये मुख्य अतिथि का बच्चा कब आयेगा  उसका धैर्य अब जवाब देने लगा । अन्त में बोल उठा---
"हा ! हा ! हा! हा! मैं ’रावण’ हूं
भीड़ उस की तरफ़ मुड़ गई । ये कौन बोला --रावण कहां है --ये तो पुतला है । सभी एक दूसरे को आश्चर्य भरी दॄष्टि से देखने लगे- ये पुतला कहां से बोल रहा है?
"हा ! हा! हा! हा!’ -पुतले से पुन: आवाज़ आई-- मैं पुतला नहीं ,रावण बोल रहा हूँ ,! अरे भीड़ के हिस्सों ! मूढ़ों   तुम लोग क्या समझते हो कि तुम लोग मुझे मार दोगे? वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक सभी ने मुझे मारा । क्या मैं मरा?  हर साल तुम ने मुझे मारा । क्या मैं मरा? तुम कहते हो कि मैने ’सीता का अपहरण किया ? क्या मेरे मरने  के बाद सीता का अपहरण बन्द हो गया । क्या तुम्हारे ’बाहुबली’ लोग अब सीता का  ’अपहरण’ नही करते?--उन्हें ’फ़ाइव स्टार’ होटेल में क़ैद नही कर के रखते? मैने छल किया --क्या तुम लोग छल नहीं करते ?
हा हा ! हा! हा!
-----मैं मरता नही  अपितु ज़िन्दा हो जाता हूँ हर साल -----तुम्हारे अन्दर --- लोभ बन कर ,,,,हवस बन कर,,,, , छल बन कर ...अहंकार बन कर ---ईर्ष्या बन कर--परमाणु बम्ब बन कर --हाईड्रोजन बम्ब बन कर ।हर देश में ..हर काल में मैं ज़िन्दा रहा हूँ मैं । कभी---- हर युद्ध में  हर मार काट में --कभी सीरिया में ----कभी लेबनान मे--- । तुम विभीषण’  को पालते हो क्यों कि वह तुम्हे ’सूट’ करता है ----तुमने कभी अपने अन्दर झांक कर नही देखा ---तुम देख  भी नही सकते -तुम देखना चाहते भी नही -तुम्हे मात्र मुझ  पर पत्थर फ़ेकना आता है --कि तुम्हे आसान लगता है --तुम अपने आप पर ’पत्थर नहीं  फ़ेंक सकते----- - मुझे जलाना तुम्हे आसान लगता है -तुम अपने अन्दर का लोभ नहीं जला सकते -मुझे मारना तुम्हे आसान लगता है ---तुम अपने आप का ’अहंकार नही मार सकते । - मेरा अहंकार स्वरूप दिखता है ---।तुम्हे मेरे नाम से नफ़रत है---कोई  अपने बेटे का नाम ’रावण’ नही रखना चाहता ----सब ’राम’ का ही नाम रखना चाहते हैं ---आसाराम---राम रहीम--राम पाल --राम वॄक्ष ---ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में लोग ’राम’ का नाम  भी रखने में 2-बार सोचेंगे  । मैने  तो राम के नाम का सहारा नहीं लिया  -।  रावण एक प्रवॄत्ति है--उसे कोई नही मार सकता--अगर कोई मार सकता है बस--तुम्हारे दिल के अन्दर का ’रामत्व’ ही मुझे मार सकता है --- तुम राम नही ----अपने अन्दर ’रामत्व’ जगाऒ -दया जगाओ--क्षमा जगाओ----करुणा जगाओ--प्यार जगाओ -दान जगाओ--पुण्य जगाओ - मैं खुद ही मर जाऊँगा----

’या ही इज टाकिंग समथिंग नाइस’-- शर्मा जी ने कहा
माथुर साहब ने हुंकारी भरी--’ जब मौत सामने दिखाई देती है तो ज्ञान निकलता है  सर --दैट इज व्हाट एक्ज़ैक्टली ही इज टाकिंग’ सर !
--- माईक से उद्घोषणा हुई --- भाइयो और बहनो ! आप के प्यारे दुलारे चहेते मुख्य अतिथि महोदय अब  हमारे बीच पधार चुके है ---जोरदार तालियों से उनका स्वागत कीजिए। थोड़ी देर में ’रावण वध’ का आयोजन किया जायेगा

सब ने अपने अपने हाथ में पत्थर  उठा  लिए।
अस्तु

-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 25 सितंबर 2017

जिन्दगी

जिन्दगी

विवसता में  हाथ  कैसे  मल रही  है जिन्दगी
मनुज से ही मनुजता को छल रही है जिन्दगी
एक  छोटे  से  वतन  के  सत्य  में आभाव में
रास्ते की पटरियों  पर  पल  रही  है जिन्दगी//0//

फूल  है  जिन्दगी  शूल  है  जिन्दगी
भटकने पर  कठिन भूल है जिन्दगी
जो समझते है अपने को उनके लिए
मनुजता का  सही मूल  है  जिन्दगी//१//

छाँव  है  जिन्दगी  धूप  है  जिन्दगी
मधुरता  से  भरा  कूप  है  जिन्दगी
सत्य में सत्य  के साधकों  ने  कहा
ईश का ही तो  प्रतिरूप है जिन्दगी//२//

शान  है  जिन्दगी  मान  है   जिन्दगी
अपनेपन  से  भरी  खान  है जिन्दगी
कितना ऊँचा महल हो भले खण्डहर
जब तलक साथ  में जान है जिन्दगी//३//

प्रेम  का  बीज  बोती  कहीं   जिन्दगी
अपना अस्तित्व  खोती कहीं जिन्दगी
सत्य में अपने लौकिक सुखों के लिए
बैलगाड़ी   में   जोती   कहीं  जिन्दगी//४//

आग की नित तपिस भी सहे जिन्दगी
सर्द   में   बन   पसीना   बहे  जिन्दगी
रात हो या दिवस  कितनी मेहनत पड़े
फिर भी आराम को  न  कहे  जिन्दगी//५//

झंझटों  में  उलझ - सी  गयी  जिन्दगी
कैसे  दोजख  सदृश हो गयी  जिन्दगी
आग  से  खेलते   जो  उदर  के  लिए
रोज  मिलती  उन्हें  भी  नयी जिन्दगी//६//

नित्य   बूटे   कसीदे   गढ़े   जिन्दगी
मन में उल्लास  लेकर बढ़े  जिन्दगी
ज्ञान  सम्पूर्ण  हो  यह  जरूरत नहीं
नौकरी  के  लिए  ही  पढ़े   जिन्दगी//७//

कहीं  कर्तव्य  में  फँस गयी जिन्दगी
कैसे  वक्तव्य  में फँस  गयी जिन्दगी
आजकल की  चकाचौंध  में  दीखने
सत्य  में  भव्य में फँस गयी जिन्दगी//८//

पिस रही जिन्दगी घिस रही जिन्दगी
पीव बनकर कहीं  रिस रही जिन्दगी
अपने कर्तव्य  में  कैसी  उलझी  हुई
दीख  जाती  वही जिस रही जिन्दगी//९//

पल रही जिन्दगी  चल रही  जिन्दगी
अर्थ  के  अर्थ  में  छल रही जिन्दगी
बस नमक  और  रोटी के आभाव में
भूख की आग  में  जल रही जिन्दगी//१०//

आज है क्या पता कल नहीं जिन्दगी
जिन्दगी जिन्दगी  मल नहीं जिन्दगी
सीख ले जो भी  जीना किये कर्म से
मौत हो जाये यह हल नहीं  जिन्दगी//११//

जिन्दगी  का मधुर  गीति है जिन्दगी
आदि से  सृष्टि  की रीति है  जिन्दगी
प्रेम  से  जो  जिए  प्रेम  के  ही लिए
उसको  अनुभूति है प्रीति है जिन्दगी//१२//

सुख - दुखों को भी चखती कहीं जिन्दगी
अपनी किस्मत को लखती कहीं जिन्दगी
अन्तरिक्ष    हो   या   माउण्टएवरेस्ट   हो
हौंसला   उच्च     रखती   कहीं  जिन्दगी//१३//

कहीं   सौरभ  विखेरे  यही  जिन्दगी
काम आ जाये जो बस वही जिन्दगी
न हो पीड़ा किसी को  स्वयं से कभी
स्वयं  ही  कष्ट  सारे   सही  जिन्दगी//१४//

धूप  हो  छाँव  हो  काटती  जिन्दगी
कर्ज का बोझ भी  पाटती  जिन्दगी
भूख से जब भी लाचार हो जाती है
जूंठे   दोने   उठा  चाटती   जिन्दगी//१५//

द्वेष-विद्वेष  भी  कर  रही  जिन्दगी
कैसे अपनों ले ही डर रही जिन्दगी
दीखती ही नहीं  अब सहनशीलता
ऐसे परिप्रेक्ष्य में मर  रही  जिन्दगी//१६//

शब्द से ही  मशीहा  बनी  जिन्दगी
दम्भ  में  पूर्णतः  है  सनी  जिन्दगी
एक छोटा - सा उपकार होता नहीं
बन  गयी आज कैसी धनी जिन्दगी//१७//

मात्र  आहार  ही  कथ्य  है जिन्दगी
प्राणवायु   जहाँ   तथ्य  है  जिन्दगी
आज  के  दौर  में  कोई  होता  नहीं
जीना तो है तभी स्वश्थ्य है जिन्दगी//१८//

आँख में चुभ रही  है  कहीं  जिन्दगी
जाने कितनी अकारण जही जिन्दगी
वैमनश्यता  में आयु  चली  जाती  है
प्रेम का पुष्प  खिलता  नहीं जिन्दगी//१९//

राज  अन्तःकरण  में  लिये   जिन्दगी
कितने उपकार हम पर किये जिन्दगी
ज्ञान की ज्योति  उर में प्रकाशित करे
बाकी कुछ भी नहीं जो दिये जिन्दगी//२०//

मोक्ष पद मिल सके त्याग है जिन्दगी
आवरण   से   ढकी  राग है  जिन्दगी
अपना अस्तित्व खोती समर्पण में जो
वही  जीवन  का  अनुराग है जिन्दगी//२१//

भोगियों  के  लिए  भोग  है  जिन्दगी
कर्म से जो विमुख  रोग  है  जिन्दगी
जीव का  ईश  से  सम्मिलन  दे करा
सत्य  का  सार्थक  योग है  जिन्दगी//२२//

धर्म  है  ही  नहीं   पाप   है   जिन्दगी
लोभियों, लोभ का  जाप  है  जिन्दगी
न  क्षमा  है  दया  है  न  करुणा  ही है
उनका जीवन ही अभिशाप है जिन्दगी//२३//

साधना  के  लिए   पूर्ति   है   जिन्दगी
उर  में  आनन्द  दे  मूर्ति  है   जिन्दगी
अपने पथ से नहीं  जो विमुख हो रहा
कितने संकट  हो  स्फूर्ति  है  जिन्दगी//२४//

तड़पती है  कहीं  बन  विरह जिन्दगी
कर रही  है कहीं  पर  जिरह जिन्दगी
झंझटों से ग्रसित बनके अयहाय - सी
चल रही  है  कहीं  दर गिरह जिन्दगी//२५//

रम में  विक्षिप्त - जैसी  रमी जिन्दगी
भीड़ है  हर  जगह पर जमी जिन्दगी
दीख  जाती  कहीं  खिलखिलाते हुए
ड़बड़बाई  हैं  पलकें  नमी   जिन्दगी//२६//

सुर्ख  जोड़े  में  जाती  कहीं जिन्दगी
काल  स्वर्णिम बनाती  कहीं जिन्दगी
प्रेम  में  अपना   सर्वस्व  देकर  स्वयं
डूबकर  गम  भुलाती  कहीं जिन्दगी//२७//

ले  हथौड़ी  शिला  तोड़ती  जिन्दगी
धार नदियों की भी मोड़ती  जिन्दगी
चन्द लौकिक सुखों के लिए ही सही
पाई - पाई   जुटा   जोड़ती  जिन्दगी//२८//

पग बिना किस तरह घीसती जिन्दगी
अस्पतालों  में  भी  टीसती   जिन्दगी
अपने वश का  कोई  कार्य होता नहीं
क्या  करे  दाँत  ही  पीसती  जिन्दगी//२९//

छूत  है   जिन्दगी   पूत   है   जिन्दगी
है  भविष्य   कहीं   भूत  है   जिन्दगी
रंक,  राजा  बनी  फिरती  इतरती  है
आदि से अन्त तक  सूत  है  जिन्दगी//३०//

बन  रही  जिन्दगी  ठन रही  जिन्दगी
जिन्दगी  के  लिए  धन रही  जिन्दगी
शोक संतप्त  हो  शव  लिए  साथ  में
गाड़ने   हेतु   में    खन  रही जिन्दगी//३१//

कट  रही  जिन्दगी पट  रही जिन्दगी
वेहया   अनवरत   खट रही जिन्दगी
लोभ लालच  तथा मोह से  आवरित
नित्य प्रतिपल सुघर घट रही जिन्दगी//३२//

लथ रही जिन्दगी  पथ  रही  जिन्दगी
कैसे  सम्बन्ध  में  नथ  रही  जिन्दगी
अपना बन जाये  दूजा  गिरे  भड़  में
बस  इसी  भाव  से मथ रही जिन्दगी//३३//

जैसा  ऐनक  हो  वैसा दिखे जिन्दगी
नित्य  वातावरण  से   सिखे जिन्दगी
जो भी कर लेते है  सत्य  की साधना
दूध  का  दूध  पानी   लिखे  जिन्दगी//३४//

ज्ञान  है  और   विज्ञान   है   जिन्दगी
लक्ष्य  भेदे  कठिन  बान  है  जिन्दगी
अपने सम्मोह से  मोहती  जो  जगत
बाँसुरी  की  मधुर   गान  है  जिन्दगी//३५//

स्मरण  हो  रही   विस्मरण  जिन्दगी
हो  रही  नित्यप्रति  संक्षरण जिन्दगी
दृश्य को देखते दिन निकल जाता है
ओढ़ती  मृत्यु  का आवरण  जिन्दगी//३६//

द्वन्द  है  तो  कहीं   फन्द   है  जिन्दगी
कैदखानों    में   भी   बन्द  है  जिन्दगी
जिसको आये कला जीवन जी लेने की
बस  उसी  के  लिए  छन्द  है  जिन्दगी//३७//

बीत  जाये  व्यथा   में  कथा  जिन्दगी
कट न  पाये  कभी  अन्यथा  जिन्दगी
मिल  गयी  है  सुधा पान कर लेने को
तत्व का ज्ञान,  जिसने  मथा  जिन्दगी//३८//

झेलती    जिन्दगी   ठेलती   जिन्दगी
मन  मधुप  माधुरी  मेलती   जिन्दगी
भाव,  आभाव  का  जब सरोकार हो
किस  तरह  रोटियाँ  बेलती  जिन्दगी//३९//

सृष्टि कारण  सृजक  अंश है जिन्दगी
तप से  शोधित  हुआ वंश है जिन्दगी
चेतना   रूप   में   संचरित   हो   रहा
दृश्य  होता   नहीं   हंस   है  जिन्दगी//४०//

स्वाद  का  स्वाद  है  दन्त  है जिन्दगी
प्रीति  सम्बन्ध  में  कन्त   है  जिन्दगी
जो  स्वयं  सिद्ध  आनन्द  के  रूप  में
आदि  से  सम्मिलन  अन्त है जिन्दगी//४१//

स्वप्न  कितने  संजोकर  रखे  जिन्दगी
अनगिनत  घाव  उर पर चखे जिन्दगी
वैसे   संयोग   में  जी    सभी  लेते  हैं
गम नहीं तो क्या जीना सखे! जिन्दगी//४२//

मानता  कोई  समझौता  है  जिन्दगी
मृत्यु उपलक्ष्य में  न्यौता  है  जिन्दगी
भेद  देती  मधुर  जग के सम्बन्ध को
शब्दभेदी      सरौता  है       जिन्दगी//४३//

अन्ततल  में  वशा  देती  भय जिन्दगी
उड़   रही  यान  में  बैठ  गय  जिन्दगी
भोग अतिशय चरम पर पहुँच जाये तो
संवरण  कर  रही  रोग  क्षय   जिन्दगी//४४//

उम्रभर    रेंकती     सेंकती     जिन्दगी
फिर  जले  पर  नमक फेंकती जिन्दगी
पात्र भिक्षा का  कर  में  लिए  दौड़कर
आश    में   रास्ता    रोंकती   जिन्दगी//४५//

काटती  है  निशा  टाट   पर   जिन्दगी
दीखती  मौत  के  घाट   पर   जिन्दगी
धन  के  भण्डार  पर कुण्डली मारकर
बैठती  ठाट  से   खाट   पर   जिन्दगी//४६//

चल  रही  फिर  रही  घात में  जिन्दगी
अंधेरी     घनी    रात      में    जिन्दगी
दीख  पड़ती   बनाते   हुए  आज   भी
बस  हवाई  महल  बात   में   जिन्दगी//४७//

नेह  में   रच   रही   अल्पना   जिन्दगी
खो रही  किस  तरह  कल्पना जिन्दगी
सुख की अनुभूति  पलभर हुई ही नहीं
जीना  क्या  है  भला, जल्पना जिन्दगी//४८//

फेरा  लेकर  बँधी  सात  पर  जिन्दगी
काट  देती  नमक  भात  पर  जिन्दगी
माझी  मझधार  नाव  से  हो   विमुख
लगता   रखी  हुई  पात  पर  जिन्दगी//४९//

सुगमता  की  मधुर  आश है जिन्दगी
जीव का ही  तो  उपवास  है जिन्दगी
आओ प्रतिबद्ध हों बस खुँशी के लिए
द्वेष  का  नाश  अभिलाष  हैै जिन्दगी//५०//

रविवार, 24 सितंबर 2017

एक ग़ज़ल :- ये गुलशन तो सभी का है---

एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल :---ये गुलशन तो सभी का है----

ये गुलशन तो सभी का है ,तुम्हारा  है, हमारा है
लगा दे आग कोई  ये नही   हमको गवारा  है

तुम्हारा धरम है झूठा ,अधूरा है ये फिर मज़हब
ज़मीं को ख़ून से रँगने का गर मक़सद तुम्हारा है

यक़ीनन आँख का पानी तेरा अब मर चुका होगा
जलाना घर किसी का क्यूँ तेरा शौक़-ए-नज़ारा है?

सभी  तैयार बैठे हैं   डुबोने को मेरी कश्ती --
भँवर से बच निकलते हैं कि जब आता किनारा है

जो तुम खाते ’यहाँ’ की हो, मगर गाते ’वहाँ’ की हो
समझते हम भी हैं ’साहिब’!कहाँ किस का इशारा है

उठा कर फ़र्श से तुमको ,बिठाते हैं फ़लक पे हम
जो अपनी पे उतर आते ,जमीं पर भी उतारा है

ये मज़लूमों की बस्ती है ,यहाँ पर क़ैद हैं सपने
उठाते हाथ में परचम ,बदल जाता नज़ारा है

मुहब्बत की निशानी छोड़ कर जाना ,अगर जाना
कहाँ फिर लौट कर कोई कभी आता दुबारा है

यही तहज़ीब है मेरी ,यही है तरबियत ’आनन’
कि मेरी जान हाज़िर है किसी ने गर पुकारा है

-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ 
तरबियत  =पालन-पोषण

शनिवार, 23 सितंबर 2017

चिड़िया: बस, यूँ ही....

चिड़िया: बस, यूँ ही....: नौकरी, घर, रिश्तों का ट्रैफिक लगा,  ज़िंदगी की ट्रेन छूटी, बस यूँ ही !!! है दिवाली पास, जैसे ही सुना, चरमराई खाट टूटी, बस यूँ ही !!! ड...

शनिवार, 16 सितंबर 2017

Laxmirangam: हिंदी दिवस 2017 विशेष - हमारी राष्ट्रभाषा

Laxmirangam: हिंदी दिवस 2017 विशेष - हमारी राष्ट्रभाषा: हमारी राष्ट्रभाषा. परतंत्रता की सदियों मे स्वतंत्रता आंदोलन में लोगों को एक जुट करने के लिए राष्ट्रभाषा शब्द का शायद प्रथम प्रयोग...

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बुधवार, 13 सितंबर 2017

चिड़िया: पाषाण

चिड़िया: पाषाण: पाषाण सुना है कभी बोलते, पाषाणों को ? देखा है कभी रोते , पाषाणों को ? कठोरता का अभिशाप, झेलते देखा है ? बदलते मौसमों से, जूझते द...

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

Laxmirangam: दीपा

Laxmirangam: दीपा: दीपा हर दिन की तरह मुंबई की लोकल ट्रेन खचाखच भरी हुई थी. यात्री भी हमेशा की तरह अंदर बैठे , खड़े थे. गेट के पास कुछ यात्री हेंडल पकड़े ...

Laxmirangam: दीपा

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गुरुवार, 7 सितंबर 2017

Laxmirangam: आस्था : बहता पानी

Laxmirangam: आस्था : बहता पानी: आस्था : बहता पानी                 तैरना सीखने की चाह में,                 वह समुंदर किनारे                  अठखेलियाँ करन...

रविवार, 3 सितंबर 2017

चिड़िया: नुमाइश करिए

चिड़िया: नुमाइश करिए: दोस्ती-प्यार-वफा की, न अब ख्वाहिश करिए ये नुमाइश का जमाना है नुमाइश करिए । अब कहाँ वक्त किसी को जनाब पढ़ने का, इरादा हो भी, खत लिखने का,...

चिड़िया: शब्द

चिड़िया: शब्द:



शब्द

मानव की अनमोल धरोहर
ईश्वर का अनुपम उपहार,
जीवन के खामोश साज पर
सुर संगीत सजाते शब्द !!!

अनजाने भावों से मिलकर
त्वरित मित्रता कर लेते,
और कभी परिचित पीड़ा के
दुश्मन से हो जाते शब्द !!!

चुभते हैं कटार से गहरे
जब कटाक्ष का रूप धरें,
चिंगारी से बढ़ते बढ़ते
अग्निशिखा हो जाते शब्द !!!

कभी भौंकते औ' मिमियाते
कभी गरजते, गुर्राते !
पशु का अंश मनुज में कितना
इसको भी दर्शाते शब्द !!!

रूदन,बिलखना और सिसकना
दृश्यमान होता इनमें,
हँसना, मुस्काना, हरषाना
सब साझा कर जाते शब्द !!!

शब्द जख्म और शब्द दवा,
शब्द युद्ध और शब्द बुद्ध !
शब्दों में वह शक्ति भरी, जो
श्रोता को कर दे निःशब्द !!!

बिन पंखों के पंछी हैं ये
मन-पिंजरे में रहते कैद,
मुक्त हुए तो लौट ना पाएँ
कहाँ-कहाँ उड़ जाते शब्द !!!

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

 ग़ज़ल
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हाथ जब ये बढ़ा तो बढ़ा रह गया ,
जिंदगी भर दुआ मांगता रह गया

सर झुका ये सदा प्रेम से गर कभी
आँख के सामने बस खुदा रह गया

राज़ की बात इक़ दिन बताता तुम्हें
राज़ दिल में छिपा का छिपा रह गया

जिंदगी में कमाया बहुत था मगर
आख़िरी दौर में आज क्या रहा गया

रूठ जाओ अगर तो मना लूं तुम्हें
मान जाना तुम्हारी अदा रह गया

संजय कुमार गिरि
स्वरचित रचना सर्वाधिकार @कोपी राईट
31.8.2017
भोर  भई  रवि  की  किरणें  धरती  कर  आय  गईं  शरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
गान  करैं  चटका  चहुँओर   सुकाल  भई  सब  धावति  हैं
नीड़न  मा बचवा बचिगै  जिन मां  कर  याद  सतावति  हैं
फूलन  की  कलियॉ  निज  कोष  पसारि सुगंध लुटावति हैं
मानव हों अलि हों  सबको  निज  रूपन  मा  भरमावति हैं//
देख  सुकाल  सुमंगल  है   इनको   निज  नैनन  में  भरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
खेतन और बगीचन  पै  रजनी  निज  ऑसु  बहाय  गई  है
पोछन को रवि की किरणें द्युति साथ  धरातल  झीन नई है
पोशक दोष विनाशक जो अति कोमल-सी अनुभूति भई है
सागर में सुख के उठि के अब चातक मोतिन खोजि लई है//
दॉत  गिनै  मुख  खोलि  हरी  कर  भारत  भूमि नहीं डरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
खेतन  मा  मजदूर  किसान  सभी  निज काज सँवार रहे हैं
गाय बँधी बछवा बछिया  निज  भोजन  हेतु  जुहार  रहे  हैं
प्राण-अपान-समान-उदान तथा  नित  व्यान  पुकार  रहे  हैं
जीवन  की गति  है जहँ  लौ  सब  ईश्वर  के उपकार रहे हैं//
आय  सुहावन  पावन  काल   इसे  निज  अंकन  में  भरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं   करना//
रैन गई चकवा  चकवी  विलगान  रहे  अब  आय  मिले  हैं
ताप मिटा मन कै सगरौ  तन  से  मन से पुनि जाय खिले हैं
बॉध रहे  अनुराग, विराग  सभी  उर  से  विसराय  किले  हैं
साधक  योग करैं  उठि  कै  तप  से निज हेतु बनाय विले है//
प्राण  सजीवनि  वायु  चली  अब  तौ   सगरौ दुख कै हरना
लाल  सवेर  भई  उठ   जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
यह है जल लो मुख धो  करके अभिनंदन सूरज का कर लो
मिटता मन का सब  ताप उसे  तुम भी अपने उर में भर लो
बल-आयु बढ़े यश भी  बढ़ता  नित ज्ञान मिलै उर में धर लो
अपमान मिले सनमान मिले  सुख की अनुभूति करो उर लो//
जाय  पढ़ो  गुरु  से  तुम   पाठ   प्रणाम  करो  उनके  चरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा   कन-सा   अब  देर  नहीं  करना//

एक गीत : कुंकुम से नित माँग सजाए----

गीत : कुंकुम से नित माँग सजाए---


कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?

प्राची की घूँघट अधखोले
अधरों के दो-पट ज्यों डोले

मलय गन्ध में डूबी डूबी ,तुम सकुचाती कौन?

फूलों के नव गन्ध बिखेरे
अभिमन्त्रित रश्मियां सबेरे

करता कलरव गान विहग जब, तुम शरमाती कौन ?

प्रात समीरण गाता आता
आशाओं की किरण जगाता

छम छम करती उतर रही हो, पलक झुकाती कौन ?

लहरों के दर्पण भी हारे
जब जब तुम ने रूप निहारे

पूछ रहे हैं विकल किनारे ,तुम इठलाती कौन?
कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?

-आनन्द.पाठक-