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शनिवार, 14 मई 2016

पदचिन्ह

मैं देखकर झुठला जाता था
नहीं भाता था
रास नहीं आता था
उस दृश्य 
उस नक्शे का ज्ञान
जानबूझ कर हो जाता था
मार्गदर्शन से अनजान।

अबोधावस्था से होते हुए
अंततः बोधावस्था की ओर गया
फिर भी तनिक न आई हया
सो भटकता रहा
ठोकरें खाकर सर पटकटा रहा।

जब जीवन ने बहुत रुलाया
कदम - कदम पे अड़चनों ने सताया
तब जाकर कहीं अकल आया
और ऑखों के द्वार पर लगा हुआ
स्याह पर्दा हट पाया।

अतः माता पिता द्वारा हर पल
प्रस्तुत किया जाने वाला पदचिन्ह
मैं अपनी ऑखों से देख पाया
और ज्योंही उन पदचिन्हों पर 
प्रथम कदम रखा
त्योंही अनुभूति हुई
कि
माता पिता द्वारा मार्गदर्शित इन रास्तों के 
पदचिन्हों पर चलना
कितना सरल है
कितना अंगिकार योग्य है
कितना श्रेयस्कर है
कितना उपयुक्त, आवश्यक व हितकर है
जिससे श्रेष्ठ न कोई गुरु
न कोई मित्र
व न ही कोई मार्गदर्शक है।

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